अपना - पराया स्वयं को दिखाऊं।।
मर-मर जीना, फिर जी-जी मरना
ऐसे जीवन का भला, क्या करना?
उलझीं सांसों का लय-ताल बिठाऊं
सोच रहीं हूं अज्ञातवास में जाऊं ।।
लोक- परलोक अलौकिक त्रिलोक
खींचता चुंबकीय तरंगों का इंद्रलोक
अनकहें किसी निर्गुण लोक में जाऊं
सोच रहीं हूं अज्ञातवास में जाऊं ।।
ऊंब गई हूं इस संसार के मेले से
पाप - पुण्य के अलबेलें झमेलें से
स्वार्थ-परमार्थ सब विस्मृत कर जाऊं
सोच रहीं हूं अज्ञातवास में जाऊं ।।
क्या संभव है और क्या असंभव है
जब आत्मा ही अनादि दशमलव हैं
जीवन- मृत्यु से क्यों इतना घबराऊं
सोच रहीं हूं अज्ञातवास में जाऊं ।।
जग में अकेले आए हैं,अकेले जाएंगे
जब दूसरे राख में अस्तित्व जलाएंगे
क्यों न स्वंय के अस्तित्व को ढूंढ लाऊं
सोच रहीं हूं अज्ञातवास में जाऊं ।।
रिश्तों में मोह- माया का उलझन है
बुद्ध सा संवेदन हमारा यह मन है
स्वयं के लिए जब मुस्कुरा पाऊं
सोच रहीं हूं अज्ञातवास में जाऊं ।।
मन चपल चंचल हुआ कब वशीभूत
अगणित गति आनंद संपदा अभिभूत
मन की चंचलता को शांत कर पाऊं
सोच रहीं हूं अज्ञातवास में जाऊं ।।
हंसी और आंसुओ का तोल है क्या!
अरे! आत्मसम्मान का मोल है क्या ?
आत्मसम्मान का क्यों मूल्य चूकाऊं?
सोच रहीं हूं अज्ञातवास में जाऊं ।।
© सुनीता जौहरी
वाराणसी
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