Sunita Jauhari : Welcome to my blog !! सुनीता जौहरी : सब पढ़े और पढ़ाएं सबका मनोबल बढ़ाएं

*ब्लॉग आधारित प्रतियोगिता*

*होली और महिला दिवस के अवसर पर *काशी साहित्यिक संस्थान* पंजीकृत संस्थान द्वारा ब्लॉग आधारित मासिक प्रतियोगिता
*✍राष्ट्रीय मासिक ब्लॉग आधारित प्रतियोगिता- मार्च 2023✍*

*प्रतियोगिता की शर्तें:-*
1. आपकी रचना *देवनागरी लिपि* में टंकित होनी चाहिए।
2. दिए गए विषय पर सभी प्रकार की *गद्य-पद्य सकारात्मक* रचनाये मान्य है।
3. रचना में किसी भी प्रकार के *अश्लील,असामाजिक व राष्ट्र विरोधी* शब्द नही होने चाहिए और *न ही इससे सन्दर्भित कोई रचना* मान्य है।
4. एक रचनाकार केवल *दो ही रचना* भेज सकता है।
5. रचना की उत्कृष्टता के आधार पर विजेताओं का चयन *काशी साहित्यिक संस्थान* करेगा।
6. चयन पैनल का निर्णय *सर्वमान्य* होगा।
7. रचना के नीचे रचनाकार की सामान्य जानकारियां जैसे- नाम, पूरा पता पिन कोड के साथ, सम्पर्क सूत्र,ई-मेल आदि अवश्य लिखी होनी चाहिए।
8. रचना भेजने की अंतिम तिथि:.24-2-2023 से 10-3--2023* है,उसके बाद किसी भी रचनाकार की रचना स्वीकार नही की जाएगी।
9. *विजेताओं की घोषणा* *15-3-2023* को हमारे समूहों में की जायेगी l
10-रचनाएँ *ब्लॉग के कमेंट बॉक्स में ही प्रेषित करें, तत्पश्चात् फेसबुक के पटल पर* तभी रचना मान्य होगी। 
11- भाग लेने वाले सभी प्रतिभागियों को ई- सम्मान पत्र प्रदान किया जाएगा । 
12- प्रतियोगिता में भाग लेने वालें सभी प्रतिभागियों की रचनाओं का अगर संकलन निकलवाना हो तभी वे प्रतिभागी 400₹/_ किताब का देंगे, जिसमें शुल्क जमाकर स्क्रीन शॉट देने वाले प्रतिभागियों को एक किताब , सह लेखक/ लेखिका प्रमाण पत्र तथा हमारें संस्थान की तरफ से उन्हें प्रतियोगिता के परिणाम स्वरूप *उत्तम, सर्वोत्तम लेखक* का सम्मान- पत्र उनके दिए गए घर के पतें पर भेज दिया जाएगा। 
Payment option- 6386869055
UPI ID- Sunitajauhari@airtel
समूह से जुड़ने का लिंक- https://chat.whatsapp.com/LyCMtJJoypGJB1ADmgEwvN
ब्लॉग का लिंक-http://sunitajauhari.blogspot.com/2023/02/blog-post.html 

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23 Comments

होली के बदलते रंग 

होली प्रेम से जुड़ी एक ऐसी अभिव्यक्ति का नाम है जो हमें नई सुगंध देती है। नई उमंग, नई तरंग, नई सुबह और सब कुछ नए रंगों से सजा होना ही होली की पहचान है। होली रंगों का त्योहार है, हंसी-खुशी का त्योहार है लेकिन आज होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते हैं। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक-संगीत की जगह फिल्मी गानों व डिस्को का प्रचलन बढ़ गया है। आजकल के बच्चे भी इस बदलते और आधुनिक होते माहौल के बीच होली के रंगों से दूर होते जा रहे हैं। देखती हूँ तो आश्चर्य होता है कि आजकल के बच्चों को होली जैसे मस्ती के त्योहार में कोई दिलचस्पी ही नहीं रह गयी है उनके लिए तो मोबाइल और लैपटॉप पर गेम खेलना ही जीवन जीने के सही मायने है। बच्चों का यह व्यवहार और त्योहारों से दूरी सिर्फ हमारे त्योहारों की रोनक ही खत्म नहीं कर रहे बल्कि बच्चों से उनका बचपन भी छीन रहे हैं। इसलिए त्योहार मनाना और खासकर होली जैसा त्योहार मनाना सिर्फ हमारी संस्कृति की रक्षा के लिए ही नहीं बल्कि बच्चों के सर्वांगीर्ण विकास के लिए भी जरूरी है। 

आज होली केवल दिखावे का त्योहार बन कर रह गई है। आज यह त्योहार अपनी पुरानी पहचान को पूरी तरह से खो चुका है। आजकल केवल होली के रंग ही नहीं बदले बल्कि इस त्योहार के मायने भी पूरी तरह बदल चुके हैं। प्रेम और सद्भाव के इस पर्व को हमने नफरत व घृणा का पर्व बना दिया है। युवाओं के लिए तो यह पर्व लड़कियों के साथ छेडख़ानी का सुनहरा अवसर बनकर रह गया है। होली के नाम पर लड़कियों को परेशान करना आज आम बात हो गई है। नशीले पदार्थों का सेवन करके होली की आड़ में एक-दूसरे को परेशान करना, अपशब्द कहना इस त्योहार की पहचान बनकर रह गई है। किसी से बदला लेने के लिए इस दिन उस पर रंग की जगह कीचड़ फेंकना इस पर्व की पवित्रता को खत्म करता जा रहा है। जुआ और सट्टेबाजी की परंपरा भी इस दिन की पहचान बनती जा रही है। होली प्रेम व सद्भाव का ही पर्व बना रहे इसके लिए जरूरी है कि हम होली के रंगों को न बदलने दें और फिर से एक ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास करें जिसमें वही पुराना प्रेम, भाईचारा व सौहार्द विकसित हो सके जो कि हमारे इस पर्व की पहचान थी। नहीं तो हमारा ये पर्व अपना वास्तविक रूप खो देगा। अपने त्योहारों के वास्तविक रंगों से अलग होने के बाद अपनी सभ्यता व संस्कृति को बनाए रखना भी आसान नहीं होगा। इसीलिए हम सबकी ये पुरजोर कोशिश होनी चाहिए कि हम इस त्योहार को इसके रंगों से दूर न करें और मिल-जुलकर प्यार से सभी के साथ इस पर्व के रंग व खुशियां बांटें। 


लक्ष्मी अग्रवाल 

लक्ष्मी अग्रवाल

पता -  प्लॉट नो-१८, यूजीएच -०७ अजनारा लैंडमार्क सेक्टर ४

वैशाली गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश २०१०१० 
मोबाइल नम्बर व मेल आई डी -७८३८८१५५८२ /meghamyself@gmail.com
जन्म तिथि -०४-०५-१९८७ 

होली रंगों का त्योहार
*****************
मदमस्त भरा अपना प्यारा,
रंग से भरा होली का त्योहार,
हवा में रंगत फैल गई है,
लाल,गुलाबी,पीले,नीले ,हरे,
उड़ रहे रंग सभी रंगीले देखो,
कोई पिचकारी भर कर लाये,
कोई प्रेम से गुलाल लगाये,
न रहे गा वैर भाव न कोई दुश्मन,
चलो यारों आज मिलजुल कर,
घर -घर जाकर प्रेम रंग बिखरायें,
कहीं मिले गी गुजिया ,कहीं मालपुआ,
कहीं मिले गी ठंडाई,हम मस्त हो कर गायें,
भाई-भाई का प्रेम रंग कम न हो ऐसी चाहत,
वसुधा सब प्राणी में,मन प्राण जगाये,
ऐसे सुहाने दिन का ,न हो कभी अंत,
आयी खुशी बहार, होली रंगों का त्योहार।
(स्वरचित)
______डाॅ सुमन मेहरोत्रा, मुजफ्फरपुर, बिहार
होली रंगभरनी
—-----------
होली रंग भरनी लाई संग ऋतु रंग की,
नीर में घुले ढ़ग रंग के,
फैलाती चहुँ ओर,
प्रेम सखी रे!
होली रंग भरनी लाई संग ऋतु रंग की।।
छल छल छलके अम्बर से,
अबीर गुलाब सज़ीले,
राधे संग कन्हैया,
ग्वालों संग हिले मिले,
फैलाती चहुँ ओर,
प्रेम सखी रे!
होली रंग भरनी लाई संग ऋतु रंग की।।
पिचकारी भर भर सब गोपी,
कृष्णप्रिया को घेरे,
बरसाऐ फूलों के इत्र को,
ऐसा मोहक खेले,
फैलाती चहुँ ओर,
प्रेम सखी रे!
होली रंग भरनी लाई संग ऋतु रंग की।।

स्वरचित------©रोली मिश्रा*कृष्णरति*
आगरा, उत्तर प्रदेश
कोमल है कमजोर नहीं अब
बेबस और लाचार नहीं अब
नारी तेरे रूप अनेक हैं
अबला दुखिया तू नहीं अब ।

तेरे दृढ़ संकल्प के आगे
अंबर को झुकते देखा है
अपने रूप को पहचाने तो
भाग्य बदलते देखा है।

साहस धैर्य प्रेम समर्पण
ए तेरी परिभाषा है
पल पल छिन छिन रूप बदलती
तुझसे कितनी आशा है।

घर बाहर की जिम्मेदारी
से भी तो अनजान नहीं अब
दोनों कुल का मान बढ़ाती
अपने अधिकारों से अनजान नहीं अब

उठ उठो जागो खुद को पहचानो
अपना अस्तित्व संभालो अब
भाग्य कोसना छोड़ दो अपना
खुद विश्वास जगा लो अब ।

अंजनी त्रिपाठी
गोरखपुर उत्तर प्रदेश
Unknown said…
. *होली का त्यौहार*

रंगों की चादर में लिपटा,प्रीत सन्देशा लाया।
रंग-रंगीला होली का,त्यौहार मिलन का आया।।

पीत रंग सरसों का,कहीं केसरिया टेसू बिखरा,
धरती झूमे पुरवाई संग,रूप है उसका निखरा,
रंग बिरंगे फूलों संग,प्रकृति ने रूप सजाया।
रंग रंगीला होली का त्यौहार मिलन का आया।।

गली गली में धूम मची,हर आँगन बरसे फाग,
छेड़ रहे सब एकदूजे को,प्रीत में लिपटे राग,
क्रोध हुआ काफूर कि देखो हर चेहरा मुस्काया।
रंग-रंगीला होली का त्यौहार मिलन का आया।।

रंग अबीर गुलाल है बिखरा,बिखरा नेह का रंग,
गले मिल रहे एकदूजे से,छोड़ बैर की जंग,
जात-पात को भूल सभी ने,मिलन गीत है गाया।
रंग-रंगीला होली का,त्यौहार मिलन का आया।।

राधेरानी कान्हा बन गयी,कान्हा बन गये राधा,
हर गोपी को कान्हा ने,बंसी की धुन पे साधा,
ग्वाल-बाल गोपी संग सारा,गोकुल है हरषाया।
रंग-रंगीला होली का त्यौहार मिलन का आया।।

मर्यादित हो रंग लगाओ,करो ठिठोली हास,
जिससे कि रिश्ते न टूटे, हो न फिर परिहास,
जीवन का हर रंग है अद्भुत,होली ने सिखलाया।
रंग-रंगीला होली का,त्यौहार मिलन का आया।।

अनुजा दुबे 'पूजा'
अप्रकाशित/पूर्णतः मौलिक
सर्वाधिकार सुरक्षित@
तुमसर,महाराष्ट्र

पता:Abuja Dubey
USA Vidya Niketan,Tumsar
Shriram Bhawan,Campus
Dist:Bhandara
PO:Tumsar
PIN:441912(Maharashtra)
Unknown said…
. *होली का त्यौहार*

रंगों की चादर में लिपटा,प्रीत सन्देशा लाया।
रंग-रंगीला होली का,त्यौहार मिलन का आया।।

पीत रंग सरसों का,कहीं केसरिया टेसू बिखरा,
धरती झूमे पुरवाई संग,रूप है उसका निखरा,
रंग बिरंगे फूलों संग,प्रकृति ने रूप सजाया।
रंग रंगीला होली का त्यौहार मिलन का आया।।

गली गली में धूम मची,हर आँगन बरसे फाग,
छेड़ रहे सब एकदूजे को,प्रीत में लिपटे राग,
क्रोध हुआ काफूर कि देखो हर चेहरा मुस्काया।
रंग-रंगीला होली का त्यौहार मिलन का आया।।

रंग अबीर गुलाल है बिखरा,बिखरा नेह का रंग,
गले मिल रहे एकदूजे से,छोड़ बैर की जंग,
जात-पात को भूल सभी ने,मिलन गीत है गाया।
रंग-रंगीला होली का,त्यौहार मिलन का आया।।

राधेरानी कान्हा बन गयी,कान्हा बन गये राधा,
हर गोपी को कान्हा ने,बंसी की धुन पे साधा,
ग्वाल-बाल गोपी संग सारा,गोकुल है हरषाया।
रंग-रंगीला होली का त्यौहार मिलन का आया।।

मर्यादित हो रंग लगाओ,करो ठिठोली हास,
जिससे कि रिश्ते न टूटे, हो न फिर परिहास,
जीवन का हर रंग है अद्भुत,होली ने सिखलाया।
रंग-रंगीला होली का,त्यौहार मिलन का आया।।

अनुजा दुबे 'पूजा'
अप्रकाशित/पूर्णतः मौलिक
सर्वाधिकार सुरक्षित@
तुमसर,महाराष्ट्र

पता:Anuja Dubey
USA Vidya Niketan,Tumsar
Shriram Bhawan,Campus
Dist:Bhandara
PO:Tumsar
PIN:441912(Maharashtra)
होली आया आ जाओ ना मुरारी
रंगों की बौछार बरसाऔ ना मुरारी
क्या नर क्या नारी क्या चोली क्या साड़ी सब बाट निहारे तेरी
कब आये श्याम हमारे तो अपने ही रंग में रंग डाले
बांध के पगड़ी पहन के पीताम्बरी पकड़ पिचकारी कुंजगली से निकले श्याम
भर भर थाली रंग अबीर के श्याम पर डाली बृजनार
श्याम ने मारी भर भर पिचकारी किसी की रंगी अंगिया चुनरी तो
किसी की रंगी साड़ी
किसी की बिगडी गौरा मुखड़ा तो
किसी की बिगडी साड़ी
बृजमंडल में खेले सब नर नारी प्रेम की होली संग में खेले राधा कुंजबिहारी
मीनू शर्मा रायपुर 🙏🙏🙏
इक नार नवेली सुन्दर नारी द्वारा खड़े राह निहारे अपने पिया की
कुछ सकुचाती कुछ मचलती कुछ मुस्काती कुछ शर्माती मुंह में दबाती हुई आंचल अपना नैन बिछाए राहों पर ओ राह निहारे अपने पिया की
शाम ढले जब पिया ना आए नीर बहाए ओ आंचल को थाम
अपनी पीड़ा अपने से कह ओ दर्द सहती अपार
दर्द छुपाती है और मुस्काती है अपनी पीड़ा को ओ शब्दों में बयां करती हैं
आपके ग़म की घटा को हमने अपने आंख का काजल बना लिया
आपकी यादों को यू समेटा हमने अपना आंचल बना लिया
क्या चांद सितारों की चमक से हमारी बिंदियां की चमक कम है क्या
क्या फुलों कि महक से हमारे बदन की महक कम है क्या
क्या राधे कृष्णा के प्रेम से हमारा प्रेम कम है क्या
फिर क्यों तड़पाते हो मुझे तुम फिर क्यों दर्श नहीं दिखाते हों मुझे तुम फिर क्यों सीने से नहीं लगाते हो मुझे तुम
आपके बिना अब नींद नहीं आती रात तड़प के गुजारती हुं
शायद ख्वाबों में ही अपने आगोश में ले लोगे यही सोच कर बांहों को फैला कर तुम्हारे इन्तजार में आंखें मूंद लेती हुं
मीनू राजेश शर्मा रायपुर छत्तीसगढ़
🙏🙏🙏
Vartika agrawal said…

दिनांक-4/3/2023
होली(ग़ज़ल)

भंग-मीठा सब को हँस कर खिलाती होली ।
ठंडई प्रिय है शिवा को यह बताती होली।

शंकरा भस्म उड़ाते हैं मसाने में हो ..
प्रेत-तांत्रिक शिव से खेले ये दिखाती होली।

प्रभु कभी भेद न करते चर-अचर सब होते ..
प्रेम के साथ रहो मिलकर सिखाती होली।

दुश्मनी भी मिट सके है मिले जो दिल का रँग..
बीच दीवार गिरा कर दिल मिलाती होली।

दूर रिश्ते जो हुए थे मिल नज़दीकी लाए ..
प्यार की गर्माहट से दिल पिघलाती होली।

प्रेम का धर्म सदा ही सब से ऊँचा होता..
जीत लेता है हर को यह सुनाती होली।

क्यों लड़े हम चिढ़े दिल से अंतर क्यों रखते ..
ज़िंदगी यह उत्सव है बस गाती होली।

वर्तिका अग्रवाल 'वरदा'
वाराणसी
उ.प्र.
Unknown said…
*चाहता हूं बनाना मैं भी नारी*
*************************
नर से नारी, दो दो मात्रा में भारी
चाहता हूँ बनना मैं भी एक नारी
पुरुष की तो सार्थकत है नारी
पुरुष एक शव तो शक्ति है नारी
शव को भी "शिव" बनाती नारी
रवि यदि पुरुष, किरण है नारी
शशि यदि पुरुष,चांदनी है नारी
पवन यदि पुरुष, गति है नारी,
अल्पना, कल्पना, संवेदना नारी
गीतिका, कविता, रागिनी नारी,
आराधना वही, पूजा वही, वंदना वही,
आरती वही, अरमान वही, थाली वही, दीपिका वही, वर्तिका वही, दीप्ति, ज्वाला सब कुछ नारी।
भावना नारी, श्रद्धा नारी, भक्ति नारी, अनुभूति नारी, मुक्ति नारी।
नारी करुणा, सुरभि है, पुष्पा है
ये सभी लेबल नारी पर ही चस्पा है।

मैं भी चाहता हूँ किसी नारी से बस थोडी सी रश्मि, किरण, दीप्ति, बनने के लिए उज्ज्वल प्रकाश।
थोडी सी ज्योति, होने के लिए प्रभात,
थोडी सी अभिलाषा, पाने के लिए गति,
थोडी सी चिंता, सवारने के लिए मति
थोडी सी वंदना, छोड़ने के लिए अभिमान
थोड़ी सी पूजा, तोड़ने ले लिए यह मान
थोडा सा त्याग, छोड़ने के लिए दंभ
थोडी सी गति, छोड़ने के लिए जड़ता
थोडी सी ख़ुशी, पाने के लिए प्रसन्नता ...
थोड़ा सा उत्सर्ग करने के लिए उत्कर्ष।

अब क्रूर मर्दानगी नहीं, मुझे इंसानियत चाहिए
अब नग्न कठोर पौरुष नहीं, मानवता चाहिए
केवल पैसा, धन नहीं, अब तो संवेदना चाहिए
और, और ये ... सभी तो हैं... स्त्री वाचक, नारीत्व सूचक
अब, हां अब समझ में आया हमें ......
पुरुष तो केवल एक ही है- "अकाल पुरुष", कालातीत, शेष सभी है नारियां ही
चाहे उनका रंग रूप लिंग जो भी हो।
अरे ! औरत श्रेष्ठ है हमसे, नारी श्रेष्ठतर है हमसे,
वह पहले से ही है, जन्मजात है_ नारी, जननी, भार्या, दुहिता, बहना, और न जाने क्या क्या है... स्त्री,
मैं तो आज ..पहली बार बना चिंतन में, कल्पना में .....
"एक नारी", हां, हां "एक नारी"।।

*डॉ.जयप्रकाश तिवारी*
A 5, गायत्री नगर
इन्दिरा नगर, लखनऊ
उत्तर प्रदेश पिन 226016
ईमेल dr.jptiwari@gmail.com
Mo 9450802240, 9453391020


*होली का सामाजिक - वैज्ञानिक दर्शन*
====================
होली का पर्व मात्र परंपरागत उत्सव नहीं; जीवन का मनोविज्ञान है, इसका एक सम्पूर्ण सामाजिक दर्शन है। पर्व और त्योहारों की सांस्कृतिक स्वीकृति ही इसलिए है कि समाज का प्रबुद्ध वर्ग इसे समझेगा, समाज को समझाएगा। यदि हम बात होली पर्व की ही करें तो यादि केवल इसी एक पर्व को भली - भांति समझ लिया जाये तो मानव जीवन की आधी उलझने, समस्याएं, उहापोह की स्थिति का शमन, समाधान और निराकरण स्वयं हो जायेगा; इसमें किंचित भी संदेह नहीं। तो क्या है होली? बात यहीं से प्राम्भ करते हैं..

होलाष्टक और होली का अपना एक अलग विशिष्ट संबंध और संदर्भ है, उसपर बहुत कुछ लिख जा चुका है। किंतु होली का सर्वश्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक अर्थ तो इसके अक्षर विन्यास में ही सन्निहित है - ( *होली* = हो + ली). अर्थात जो हो गया, जो बीत गया.. अच्छा या बुरा, उचित या अनुचित; उस बात को छोड़ दो, ढोते न रहो। छोड़ने का तात्पर्य मात्र यह है कि उससे उत्पन्न निराशा और अवसाद - विषाद को कंधे पर लादे न रहो, मन - मष्तिस्क पर बोझ न बनाओ। घटना के मूल में स्वयं की सहभागिता ढूंढो. यदि उसमे कोई त्रुटि हो और संशोधन की सम्भावना हो तो बेहिचक करो। अपनी लिखी कॉपी का मूल्यांकन स्वयं कीजिए। अपना
निरीक्षक - परीक्षक स्वयं बनिए, आधी समस्या का समाधान तो इस प्राथमिक स्तर पर ही हो जायेगा। पूरा नहीं भी हुआ तो मात्र इतने से ही एक सार्थक और समुचित मार्ग मिल जायेगा, यदि परीक्षक की भूमिका बिना पक्षपात, पूरी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ निभाई गयी है! यह सभी व्यक्ति और व्याधियो की अचूक दवा है। स्वयं से प्रारम्भ कर परिवार और समाज में निखार लाया जा सकता है। निजत्व के स्तर पर प्रारंभ हुआ यह परिष्कार, सामाजिक परिष्कार और राष्ट्र की अंतर्शक्ति सुदृढ़ कर उसे अंतर्राष्ट्रीय मॉडल के रूप में एक प्रेरणास्रोत बनाया जा सकता है। व्यक्ति विकास, व्यक्तित्व विकास की यह प्रगति, राष्ट्रीय प्रगति में परिणित हो सकती है, जिसकी आज महती आवश्यकता है।

होली पर्व मनाने के दो चरण हैं -
(i) होलिका - दहन
(ii) रंग - गुलाल प्रक्षेपण

क्या है यह "होलिका - दहन"? होलिका न तो कोई स्त्री प्रतीक है, न पुरुष प्रतीक; वह हमारी स्वयं की अपनी आतंरिक वृत्ति है, बुराई है, उसी को दहन करना है। विकृति और बुराई को अंकुरित होते ही, पनपते ही नष्ट कर डालना दैनिक साधना और आत्म संस्कार का उद्देश्य है। यह आदत, यह भाव मनोमालिन्य को धो डालता है। जो लोग किसी कारणवश इस दैनिक साधना से नहीं जुड़ पाते हैं, उन्हें इस वार्षिक साधना से तो अवश्य ही जुड़ना चाहिए। सामूहिक बुराइयों का दहन सामूहिक रूप से हो और सभी के समक्ष हो, यही तो है - *होलिका - दहन*। यही है इस होलिका - दहन का
सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष। इस पक्ष को दूसरे ढंग से भी समझा जा सकता है।
अब प्रचलित प्रासंगिक कहानी से जुड़े हम..! विकृत अहंकार वृत्ति (हिरण्यकश्यप की आत्म श्लाघा) अग्नि सुरक्षा कवच धारण करने वाली 'होलिका' अग्नि के प्रकोप से बच नहीं पाई, क्यों? एक अत्यंत विचारणीय बिंदु है यह। सत्य के विरुद्ध, लोकमंगल के विरूद्ध, पाप वृत्तियाँ, अनाचार - भ्रष्टाचार चाहे कितने भी सुरक्षा प्रबंध करें, भेद खुल ही जायेगा और अंततः दोषी को परास्त होना ही पड़ेगा। 'होलिका - दहन' ध्वंसात्मक और नकारात्मक वृत्तियों की हार और सद्वृत्ति 'प्रह्लाद की सुरक्षा', सत्य तथा सृजनात्मक वृत्ति, लोकमंगल की विजय है। यही इस होली पर्व का तत्त्व-दर्शन है। इसे ही भली प्रकार समझने की आवश्यकता है।

बुराइयों के उन्मूलन के पश्चात, अच्छाइयों की शुरुआत अपने आप होने लगती है। होलिका के प्रतीक लकड़ियों के ढेर में आग लगते ही हर्षोल्लास से आप और हम क्यों चिल्ला उठते हैं? क्यों हमारे अंग - प्रत्यंग थिरकने लगते हैं? क्योंकि अच्छाइयों और सदगुणों की प्रचंड आंधी ने दिल - दिमाग के कपाट खोल दिए हैं। हम प्रत्येक व्यक्ति से, छोटा हो या बड़ा, बच्चा हो या बूढा, गले से लिपट जाते हैं, रंग - गुलाल पोत देते हैं। हाँ, स्नेह और सद्भाव के रंग में भीगकर दूसरे को भी सराबोर कर देना, सद्भाव में डूब जाना ही होली है! यह होली प्रतिदिन दैनिक निजी - साधना में हो, तो बहुत अच्छी बात है. यदि यह कार्य दैनिक नहीं हो पाता, तो भी कोई बात नहीं; वार्षिकोत्सव रूप में मनाएं, लेकिन एकल नहीं सामूहिक साधना के रूप में! इस पर्व में तो परिष्कार ही परिष्कार है, उल्लास ही उल्लास, उमंग ही उमंग है. इस उल्लास - परिष्कार - उमंग को वार्षिक ऊर्जा के रूप में तन - मन - आचरण में संचित कर लेना ही इसकी सफलता है. संक्षेप में यही इस पर्व का निहितार्थ, यही इसका सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष है। आपसी मनोमालिन्य दूर कर प्रेम - सौहार्द्र को शुभारम्भ कर उसे परिपुष्ट करने के सामूहिक शुभदिवस का नाम है - "होली"। मानव को अपने अन्दर की मानवता को विकसित करने के लिए होली से बड़ा कोई पर्व हो ही नहीं सकता...!

यह किसी एक समुदाय का पर्व नहीं, मानव - समुदाय का, मानव - जाति का पर्व है। इस पर्व के भौंडेपन से, कुरीतियों से, अमर्यादित भाषा प्रयोग से यथासंभव बचें...! अन्दर की विकृतियाँ निकाल बाहर करें।विकृतियों के बहिर्गमन से रिक्त जगह में सभ्यता और संस्कृति का वास होगा, निवास
होगा। विरोधियो और शत्रुओं को स्नेह और सद्भाव के रंग में इतना रंग दो कि वह बाहर से ही नहीं, अन्दर से भी रंगीन हो जाये और विरोध का स्वर भूलकर सहयोग का जाप करने लगे। *शत्रु को मित्र बना लेने की कला ही इस पर्व की सार्थकता है, यही इस पर्व की पराकाष्ठा भी है।*

होली का एक दूसरा स्याह - धूमिल पक्ष भी है! न जाने कब और कैसे इस पर्व में हुडदंग के साथ - साथ अश्लीलता ने भी अपनी जडें जमा लीं..? दावे से साथ कुछ भी कह पाना कठिन है। लेकिन, आज जब हम होली का निहितार्थ जान गए हैं, फिर इसमें फूहड़ता और अश्लीलता का क्या काम? कपड़े यदि गंदे हो जाते हैं तो क्या उन्हें साफ़ नहीं किया जाता? मकान - दुकान की मरम्मत और रंगाई - पुताई नहीं होती? तन - बदन की मैल को क्या धुला नहीं जाता? तो फिर फूहड़ता को, विकृतियों को निकाल फेंकने में संकोच क्यों? चोर दरवाजे से आ घुसे विकृतियों को निकाल बाहर करने का दायित्व भी तो उन्ही का है, जो इस पथ को जान गए हैं, इसकी उपादेयता और महत्व को
पहचान गए हैं। पहला कदम तो वही बढ़ाएंगे.... तो आइये, एक सत्साहस भरा संकल्पलें - *हम होली मनाएंगे, खूब मनाएंगे... कलुष - कषाय - कल्मश और बुराइयों की होलिका जलाएंगे तथा विकृतियों, फूहड़पन, हुडदंग और अश्लीलता को दूर भगायेंगे...!*

सर्वसमान्य को, मानव समाज को होली की शुभकामनाएं!
एक नयी होली..... शुभ होली..... सार्थक होली..... भावनात्मक होली.....
सृजनात्मक होली.....

*डॉ जयप्रकाश तिवारी*
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
सर्वेश कान्त वर्मा said…
*चले आना सजन*
रचनाकार- *सर्वेश कांत वर्मा*
शिक्षक *रामरती इंटर कॉलेज द्वारिकागंज सुलतानपुर उ. प्र*

अबकी होली में रंग यूँ लगाना सजन,
भीगे चोली और भीगे हमारा बदन।
छूट जाए न हिस्सा बदन का कोई
इसलिए धीरे-धीरे रंग लगाना सजन । ।

होली से पहले तुम आ जाना सजन,
जिया तड़पे मेरा कहीं लागे ना मन।
तरसे हैं अखियां मिलन को तेरे,
दौड़े-दौड़े इसलिए चले आना सजन।।

राहों में दिखे कोई बाला सजन,
देख उसको ना बहक जाना सजन।
बैठी निहारुँगी मैं रास्ता तेरा,
जल्दी-जल्दी कदम तुम बढ़ाना सजन।।

सीधे घर आना ससुराल बिल्कुल न जाना
साली बैठी वहां साधे तुम पर निशाना
बच ना पाओगे उससे वह है मेरी बहन
इसलिए सीधे घर चले आना सजन ।

पिया खुद भी आना चार पैसे भी लाना ,
फीस पिंकू की अबकी जमा करके जाना।
मुन्नी रोती है कपड़ा उसे भी सिलाना,
लेके पैसे इसलिए चले आना सजन।।
Geetika Saxena said…
होली का हुल्लड़...

होली का हुल्लड़ है चहुं ओर सनम,
हम तुम खेलें होली कुछ यूं सनम।

तू मेरे रंग में रंग जाए,
मैं तेरे रंग में रंग जाऊं,
और रंग जाएं तन मन,
इक दूजे के प्रेम सनम।

होली का हुल्लड़ है चहुं ओर सनम...

कुछ खो जाऊं मैं तुझमें,
तू भी कुछ यूं डूबे मुझमें,
और फ़िर भीगें तन मन,
इक दूजे के प्रेम सनम।

होली का हुल्लड़ है चहुं ओर सनम...

कुछ यूं बहकू तेरी बाहों में,
तू भी कुछ बढ़े खुमारी में,
मदहोश हमारे हों तन मन,
इक दूजे के प्रेम सनम ।

होली का हुल्लड़ है चहुं ओर सनम,
हम तुम खेलें होली कुछ यूं सनम।

गीतिका सक्सेना
बंगला नं 210 बी,
वेस्ट एंड रोड,
सदर घंटाघर के सामने,
मेरठ कैंट, उत्तर प्रदेश 250001
9910725179
Gsaxena1809@gmail.com
Unknown said…
नारी सृजन की मूरत


सृष्टि की उत्पत्ति करती,
जीवन का पुष्प लगाती है,
नो महीने रख शिशु बीज को,
मानव पूर्ण बनाती है,
ना कोई ना कर पाया है,
ना कोई कर पायेगा,
इस सृष्टि में नाम नारी का,
अमर हमेशा कहलाएगा।
जीवन की हर इक पहलू में,
नाम एक नारी का है,
राधा हो या मीरा हो,
पहचान प्रेम की इनकी है,
दुर्गम राह को सुगम करे,
रस्ता नया दिखाती है,
पथ प्रदर्शक बनकर ये,
जीवन की राह दिखाती है।

संजय शर्मा 'पुलकित'
जयपुर, राजस्थान
9783616362
गीत - होली के पावन पर्व पर.....
मुद्दे से सब भटक गये हैं सियासत के लगते हैं मेले।
आओ सब मतभेद मिटाकर रंग बिरंगी होरी खेलें।।

नफ़रत के रंगों में सब प्यार घोलकर खूब परोसें,
वोट भरी रंगों से भीगें सबके चरण-रज खूब हैं चूमें।
झोली अपनी भरने को ही भोली सूरत लेकर घूमें,
मंदिर मस्जिद के झगड़े में अग्नि परीक्षा के हैं मेले।
मुद्दे से सब भटक गये हैं, सियासत के लगते हैं मेले।
आओ सब मतभेद मिटा कर रंग बिरंगी होरी खेलें।।

वोटों के सौदागर बनकर जानें कितने निकल पड़े हैं,
नफ़रत की खेती को बोकर सबमें ये मतभेद हैं डालें।
डर है हमको नफ़रत का, रंग ना गहरा हो जाए,
अबकी होरी की गुझिया को ये फीकी ना कर डालें।
भ्रष्टाचार की होड़ लगी है जनता बवना हो चला है,
मिलीं गड्डियां नोटों की करोड़ों के हैं रेलम रेले।
मुद्दे से सब भटक गये हैं, सियासत के लगते हैं मेले।
आओ सब मतभेद मिटा कर रंग बिरंगी होरी खेलें।।

देश के रक्षक वीर हमारे, हम सबकी रक्षा करते हैं,
खूंनी गोली सीने पर खाकर भारत मां की जय बोलें।
आओ सब मिलकर भेजें रंगभरी पिचकारी प्यारी,
देश के जन का बल मिलता वो हुंकारों से जय बोलें।
यदि पुरानी पेंशन देकर होरी में पुरानी पेंशन छोड़ें,
असल जीत तब लोकतंत्र की सत्ताधीश जब ये बोलें
मुद्दे से सब भटक गये हैं, सियासत के लगते हैं मेले।
आओ सब मतभेद मिटा कर रंग बिरंगी होरी खेलें।।

भूख भरा हो देशों में फिर क्यों आयुध के होड़ लगे हैं
मरघट में जाने को खुद़, कब्रों को खोद रहे हैं।
संस्कार यदि भारत की भूलें भीगी हों सबकी आंखें,
दर्द-दाह सबको देकर जन की नजरों में गिर रहे हैं।
सरकारें यदि व्याकुल जनता के हित ना साध सकीं,
तो व्यर्थ हुए हैं नीति तुम्हारे छल के कितने हैं मेले।
मुद्दे से सब भटक गये हैं, सियासत के लगते हैं मेले।
आओ सब मतभेद मिटा कर रंग बिरंगी होरी खेलें।।
- दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल
Shri said…
होली

किशोरी बरसाने की छोरी कृष्ण संग फाग खेल रही,
सखिन संग होली खेल रही श्याम संग रंग खेल रही।

रीत न छूटे प्रीत न छूटे प्रेम मिलन का गीत न छूटे,
ऐसा रंग लगा कान्हा रे प्रीत का कोई रंग न छूटे,
मनमोहन के संग रंग हुड़दंग खेल रही, कृष्ण------'

ऐसी धुन सुनाई मुरली ने तन नाचे मन गाए,
रंगो की यहाँ धूम मची है नर-नारी रंगे-रंगाए,
साँवली सूरत रंग उमंग फैल रही, कृष्ण------'

गइया रंग गई गोवर्धन रंग गए यमुना रंग रंगीली,
हरे रंग हरियाली रंग गई गोपियाँ प्रीत रंग पीली,
यमुना कृष्ण जल तरंग खेल रही, कृष्ण-----'

बरसाने में लट्ठमार होली लट्ठ चला रही राधा,
आगे-आगे कृष्णा भागे पीछे भाग रही राधा,
नन्द नन्दन संग लट्ठमार रंग खेल रही, कृष्ण-----'

प्रीत का रंग श्याम के संग मन अंतर भीग रहा, श्याम रंग की ओढ़ चदरिया रंग जीवन बीत रहा,
ब्रज में कृष्ण की महिमा खेल रही, कृष्ण---'

हर गोपी यहाँ राधा बन गई हर ग्वाला यहाँ कृष्णा
राधा कृष्ण का भेद ना कोई एक रंग कृष्ण-कृष्णा
कृष्ण रंग मतवारी फागुन खेल रही, कृष्ण---'

नन्द यशोदा फागुन खेलें ब्रज हुआ रंग रंगीला,
ऐसा रंग बिखर गया ब्रज में दीखे छैल छबीला,
कुदरत "श्री" कृष्ण रंग खेल रही, कृष्ण------'

स्वरचित- सरिता श्रीवास्तव "श्री"
धौलपुर (राजस्थान)
Unknown said…
Happy women's international day
#मंच हेतु
#विषय हरिहर के संग खेले फाग
#विधा कविता
#तिथि 08-03-2023
हरिहर के संग खेले फाग।
देखो कितने मधुर राग।।

राधा रानी खेले हैं।
कृष्ण मुरारी संग आए हैं।।

ब्रज की गली गली में।
सा रा रा रा गाए हैं।।

गली-गली में मधुर तान बज रही।
मुरली की मधुर तान बज रही है।।

ग्वाल गोपी सब खेले हैं।
प्रभु!ने दर्शन दिए हैं।।

भक्तों ने भी रंग खेले हैं।
प्रभु के ऊपर रंग उड़ेले हैं।।

पूरे भक्त खो गए मस्ती में।
खेले लिए होली मस्ती में।।

देव से लेकर मानव तक।
मानव से लेकर देव तक।।

यह पर्व मना रहे हैं।
प्रकृति भी अपने नव श्रृंगार से इसका सृजन कर रही है।।

राम को यह पर्व भाता है।
शरण!ने प्रभु के साथ रंग खेला है।।

@डॉ राम शरण सेठ
छटहां मिर्जापुर उत्तर प्रदेश
rsseth1987@gmail.com
Unknown said…
नमन मंच,
नमन,शारदे
विधा- कविता
होली के अवसर पर
शीर्षक-तेरे प्रेम का रंग

सचमुच कितना है प्यारा,
अहसासों में ये अहसास।
दूर रहो कितना भी,
फिर भी एहसास होता है कि
,हो तुम मेरे आस-पास ।।
तेरे प्यार का रंग सब रंगों से है गहरा,
गहराई इसकी में ही जानूं, जान ना पाए कोई दूसरा।।
होली के रंग बिरंगे रंग में कौन सा है रंग पक्का ?,
जानती हूं तेरे प्रेम का रंग ही है सबसे अच्छा।।
हरे, पीले ,लाल ,गुलाबी है गुलाल के रंग।
गुलाल लेकर खेलूं होली आज मैं तेरे संग।।
मेरे चेहरे को रंग देना गुलाल भरे अपने दोनों हाथों से।
तेरी सांसे टकराएंगी जब फिर, मेरी इन सांसों से ।।
तब होगा एक- दूजे के आंखों में चेहरा एक -दूजे का।
गति एक हो जायेगी फिर हमारी इन सांसों का।।
एक दिन का ही असर होता है,होली के कच्चे रंगों का।
पर हमारे प्यार का रंग तो है कई जन्म जन्मों का।।
रंग चुके हैं हम एक- दूजे के प्यार में ।
नहीं है कोई हम जैसा प्रेम करने वाले इस संसार में।।
राधा कृष्ण से भी भली है जोड़ी हमारी,
है भला संबंध हमारा ।
चूंकि प्रेम का रिश्ता बंधा हुआ है, वैवाहिक संबंध में हमारा।।
ऐसा संबंध जिसमें बराबर हैं तुम और हम।
प्रेम की मात्रा जहां बराबर है दोनों का,न तेरा ज्यादा न मेरा कम।
प्रेम का उदाहरण है हम दोनों का साथ- साथ।
और जब पास ना भी हों तो भी, रहते साथ दिन -रात ।।
बसते एक दूजे के भीतर हैं हम। हमारा साथ बदल देता खुशियों में, चाहे जैसा भी ह़ो गम ।।
एक दूजे पर यूं ही एक दूजे का प्रेम चढ़ा रहे ।
एक दूजे की आंखों में एक दूजे का भाव पढ़ा करें ।।
साथ बनी रहे हरदम हमारा- तुम्हारा ,
साथ -साथ खेले सदैव रंगों का यह त्यौहार प्यारा।



नीता रानी साहू
जिला -महासमुंद
छत्तीसगढ़
Unknown said…
नमन मंच, नमन शारदे
महिला दिवस विशेष
विधा- कविता
शीर्षक-सशक्ता की प्रतीक


प्रतीक है सशक्ता, सुसंस्कृताऔर सभ्यता की।
प्रतीक है निर्भयता ,शालीनता और अकर्मण्यता की।।
प्रेम की मूर्ति ,देवी दया की। निर्मल हृदय, ममता भरा आंचल होती भरपूर उसमें गुण हया की।। इस धरती पर है, न जाने उसके कितने रूप।
निखरता ही रहता है रूप उसका, शीतलता हो या, या हो कड़ी धूप।।
श्रमिक बन, कभी बोझ उठाकर चल देती है ।
बोझ कह दे कभी उसे कोई,
यह बात उस को खलती है।। करती है सेवा सबकी, बनकर गृहस्वामिनी ,
पर दासत्व उसको स्वीकार नहीं, है वह भी स्वाभिमानी ।।
कभी धरती से उड़ जाती है आकाश तक ।
कभी ले जाती है अज्ञानी को ज्ञान के प्रकाश तक।।
प्रकाश का प्रसार कर, नहीं चाहती अंधकार अपने हिस्सों में, सुख के हिस्सों में है उसका भी हिस्सा, प्रधान पात्र नहीं बनना उसको दुख भरे किस्सों में।। किस्से कीर्तिमान के बनने लगे हैं अब वर्तमान में।
सबल बन खड़ी हो चुकी ,और अधिक दृढ़ हो जाएगी आगामी समयमान में ।।
समय ‌ साक्ष्य है उसके अथक प्रयासों का ।
संघर्षों के उसके, समाज का उसके प्रति विरोधाभासों का।।

विरोधता से पर उसको अब नहीं है कोई भय ।
भय से मुक्त हो ,खड़ी है वह बनकर निर्भय।।
पंखों में अब उसके चाहत है उड़ान भरने की,
उड़ान भरकर ,ऊपर उठकर चाहत है चाहत को पूरी करने की।।
नये संकल्प अब ले चुकी है जीवन में अपने,
अपनों के लिए जिए भले ही, पूरी करेगी अपने जीवन के सपने।। पूरे हो जाएंगे सपने जब जीवन के उसके।
दुखद कहानियों में अब नहीं नाम होंगे उसके ।।
उसके कीर्ति के किस्सों को, किस्सों में न रहने देना ।
किस्सों को इतिहास का धरोहर बना, इतिहास का हिस्सा बनने देना ।।
नर‌ नारी हैं समाज के दो अभिन्न अंग।
समाज चलती रहेगी है इन दोनों के संग।।


नीता रानी साहू
जिला -महासमुंद
छत्तीसगढ़
Chandresh said…
1)

प्रेम / लघुकथा


"पता है आज होली खेली जा रही है." स्त्री स्वर
"हाँ...", उदासीन पुरुष स्वर.
"तो...!!"
"तो?"
"हम भी खेलें?"
"हाँ."
"लो अबीर का थाल."
"थाल?"
"पहले ये भी तुम्हें कम लगता था."
"तब बात कुछ और थी."
"अब क्या हो गया?"
"अब ये बच्चे खेलते हैं, उनके अपने तरीके से, हमारा क्या?"
"बच्चे या वंशज? अब हम पूर्वज हो गए हैं."
"हूँ... सालों गुज़र गए."
"ऊंहूँ, शताब्दियाँ."
"हूँ... होली तो पूरी बदल गई है."
"और तुम?"
"मैं... मैं, वही का वही, और तुम?" मुस्कराहट के साथ स्वर.
"वैसी की वैसी. फिर... हम तो खेलें... वही... वैसे ही". आग्रह करता स्वर.
"चलो राधा..." अगले ही क्षण उत्साहित स्वर.
"चलो कान्हा..." पुलकित स्वर.
-०-


2)
रंगों का मिलन

धरती पर होली का दिन था और धरती से बहुत दूर किसी लोक में कृष्ण अपने कक्ष का द्वार बंद कर अंदर चुपचाप बैठे थे। रुक्मणि से रहा नहीं गया, वह कक्ष का द्वार खोल कर कृष्ण के पास गयी और बड़े प्रेम से बोली, "प्रभु, आप द्वारा प्रारंभ किये गए फागोत्सव में आप ही सबसे दूर! इस दिन प्रति वर्ष क्यों विचलित हो जाते हैं? आज तो आपके सारे भक्त, सखा और हम आपको अबीर लगाये बिना नहीं मानेंगे।"
कृष्ण मौन ही रहे। उनके झुके हुए चेहरे पर दुःख साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था।
"अपनी प्रथम भक्त के निमन्त्रण को तो अस्वीकार नहीं कर सकते, यही तो आपकी संगिनी थी फागोत्सव के प्रारंभ में।" कहते हुए रुक्मणि ने राधा को सामने कर दिया।
कृष्ण के चेहरे पर मुस्कान आ गयी लेकिन अगले ही क्षण जाने क्या सोच कर वह फिर चुप हो गए। राधा ने अबीर लगाना चाहा तो खुद को दूर कर दिया, और भरे हुए स्वर में कहा, “होली अपूर्ण है।“
कृष्ण यह कह कर बाहर निकल गये, लेकिन सम्पूर्ण द्वारा शुरू किये गए त्यौहार में अपूर्णता क्यों है, यह किसी की समझ में नहीं आ रहा था।
कृष्ण बाहर निकले ही थे कि, उनकी दृष्टि भवन के द्वार पर आये अतिथि पर गयी, यकायक कृष्ण के चेहरे पर प्रसन्नता आ गयी, वो द्वार की तरफ भागे, राह में ही अबीर की मुट्ठी भर ली और द्वार पर खड़े अतिथि को रंग दिया।
और गले मिलते हुए अतिथि मोहम्मद ने कहा, "मेरे भाई, हर ईद पर आते हो, सेवईयां भी प्यार से खाते हो, कब तक मैं होली पर तुम्हारी मोहब्बत भरी मिठाई ना खा कर अधूरा रहूँगा?"
-0-


मेरा संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:
नाम: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
शिक्षा: विद्या वाचस्पति (Ph.D.)
सम्प्रति: सहायक आचार्य (कम्प्यूटर विज्ञान)
साहित्यिक लेखन विधा: कविता, लघुकथा, बाल कथा, कहानी
11 पुस्तकें प्रकाशित, 8 संपादित पुस्तकें
32 शोध पत्र प्रकाशित
फ़ोन: 9928544749
ईमेल: chandresh.chhatlani@gmail.com
डाक का पता: 3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002
यू आर एल: https://sites.google.com/view/chandresh-c/about
ब्लॉग: http://laghukathaduniya.blogspot.in/

सादर,

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
अबला नहीं सबला हो नारी तुम 


अबला नहीं सबला हो नारी तुम 

स्वयं मिटाओ अपने जीवन का तम। 

हर क्षेत्र में हो अग्रणी और सक्षम 

फिर क्यों बन रही हो लाचार तुम। 


अब तो अपनी शक्ति को पहचान 

जननी है तू खुद को कम मत मान। 

बेमोल मत बिकने दे अपना स्वाभिमान 

बन वीरांगना बचा खुद तू अपनी आन। 

तेरी लाज और प्रतिभा हैं तेरा अभिमान 

तेरे समक्ष तो झुक जाते स्वयं ही भगवान।  


पाप इंद्र का और पत्थर अहिल्या बने 

जननी-रक्त से परशुराम के हस्त सने। 

कब तक और आखिर कहाँ तक सिर्फ 

नारी सिर्फ और सिर्फ अत्याचार सहे। 

क्यों न हम भी धरकर आज चंडी रूप 

रक्तबीज-महिसासुर का संहार करें। 


स्वाभिमान पर उठने वाले सवालों का 

क्यों न आज हम मिलकर प्रतिकार करें। 

आबरू छीनकर हमें ही कलंकिनी कहे 

क्यों न हम ऐसे समाज का बहिष्कार करें। 

सीता बनकर हमें धरती में नहीं समाना है 

आज खुद अपना आत्मसम्मान बचाना है। 


अबला बनकर नहीं हमें गिड़गिड़ाना है 

प्रतिभा से अपनी अपना लोहा मनवाना है। 

पुरुषप्रधान समाज में पुरुष संरक्षक है 

फिर क्यों वही बन रहा स्त्री का भक्षक है। 

अपना दर्जा बुलंदियों तक पहुंचाना है 

ऐसे संरक्षकों से अपना जीवन बचाना है। 

नहीं है ऐसे संरक्षक की हमें आवश्यकता 

स्वीकार नहीं अब हमें यह क्रूर व्यवस्था। 


रक्षा को अपनी हथियार अब उठाना है 

स्त्री को अत्याचार से खुद को बचाना है। 

नारी वात्सल्य-प्रेम की नहीं केवल मूरत है 

महिषासुर-मर्दिनी की भी उसमें सूरत है। 

अपना परचम नभ में हमें अब लहराना है 

नारी ! तुम्हें अपनी सुप्त शक्ति को जगाना है। 

अपनी सहनशीलता की छवि को मिटाना है। 

सहते रहने का गुजर गया अब जमाना है 

अपना महत्त्व खुद को ही आज समझाना है। 

स्त्री के बिना संभव नहीं सृष्टि का अस्तित्व 

समाज को स्त्री का व्यापक रूप दिखाना है। 


लक्ष्मी अग्रवाल 

Sunita Jauhari :- Thanks for visiting my blog !! " सब पढ़े और पढ़ाएं सबका मनोबल बढ़ाएं " - सुनीता जौहरी